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Showing posts from September, 2017

जब रोशन हो जहाँ

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Picture courtesy of  Shan Sheehan जब रोशन हो जहाँ , तो हजारों परवाने मिल जाते है।                  छोटी-छोटी बातों के फसाने बन जाते है। पर जब दौर अंधेरे का आता है , खुद का साया भी साथ छोर जाता है। हर चीख अनसुनी सी रह जाती है , जब तकदीर की कमी रह जाती है। जब राहें रोशन हो तो मुसाफिर हजा रों मिलेंगे , खरोंच भी लग जाए तो सहारे हजारों मिलेंगे। पर वीरान राहों पर ऐसी तकदीर नहीं होती , जख्म हजारों हैं , पर उनकी कोई तस्वीर नहीं होती। Picture courtesy of  peter jackson जिन्दगी का ये कैसा दोहरा स्वरूप है ? आबाद जंगलों को हरियाली मिलती बेहिसाब है । पर हर रेगिस्तान का निर्जन बन जाता ख्वाब है। जिन्दगी के खेल भी अजीब हैं । जहाँ जीवन है , वहाँ दुनिया नहीं। जहाँ दुनिया है , वहाँ जीवन नहीं। kumar vishwas at his best awesome poetry at BIT  Video taken from YouTube channel Crazy Harsh

झूठी परछाई

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Art by Abhishek Kumar उत्थान अहम का जब होता है, अहंकार सिर पर होता है, भ्रमित नयन उपहास है करती, पतन से परिचय तब होता है। हम सभी अपने जीवन में ऊँचाइयों की तलाश में इतने खोए होते है कि हमें खुद पता नहीं चलता कि हमारे पाव जमीन से कब जुदा हो जाते है। हमें खुद पता नहीं होता है कि बुलंदियों को छुने के चक्कर में हम वास्तविकता से कितने दूर हो जाते हैं। शायद एसी ही परिस्थिति में आत्मविश्वास अहंकार को परिभाषित करने लगता है। हम अपने वजूद की वास्तविकता खो कर इक ऐसी परिकल्पना में लीन हो जाते है जिसका यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता है। जिन्दगी की तरलता पर जब हम खुद के बजाए अपने घमंड के प्रतिबिम्ब  की प्रखरता से परिचित होते है तब यथार्थ की रोशनी फरेबी चकाचौंध के बीच कही गुम सी हो जाती है। ये साहित्य की कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि जीवन की वास्तविकता है। हम सभी अपने जीवन के किसी-न-किसी हिस्से में इस यथार्थ से रूबरू हो चुके है। बावजूद इसके हम इस सच को नजरंदाज कर देते है। हम खुद को अपने जीवन की कहानी का रंगा सियार बना लेते है जिसके नकली रंगत उतरने के बाद की दुर्द

उड़ जा रे

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Picture courtesy of  Susanne Nilsson छाया जब धुंध घनेरा हो, पहचान पर तेरे पहरा हो, नभ में अंकुश चहुँओर दिखे, जब सन्नाटे सब ओर बटे।             तू आहट अपनी सुनाएगा,             नभ का पंकज खील जायेगा।                        तू पंख लगा कर  उड़  जा रे।             मंजिल से अपने जुड़ जा रे। पुलकित पावन परिभाषा तू, नव युग की रोशन आशा तू। अम्बर के आनन को छु कर, हर ज़र्रे को दिखला जा तू।             घनघोर अँधेरा छाया हो,             ज़र्रा-ज़र्रा घबराया हो।             तू रोशनी का संदेश सुना,             हर दीपक को तू जला जा रे।             तू पंख लगा कर उड़ जा रे,                        मंज़िल से अपने जुड़ जा रे।  

तू मंज़िल मेरी, तू किनारा मेरा है

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Picture courtesy of  JHONNY LAI काफ़िला वक़्त का थम सा गया है। हसरतों का नशा अब कुछ चढ़ सा गया है। जब से ए हमसफ़र तू मिला है मुझे, हर लम्हा अब थोड़ा ठहर सा गया है। हर हकीकत की तस्वीर तुमसे जुड़ी है। हर घड़ी वक़्त का इक इशारा लगा है। तुझी से शुरु अब कहानी मेरी है, तुझी पर खत्म अब फ़साना मेरा है। हूँ अगर नाव मैं तो तू किश्ती है मेरी। हूँ अगर ज़िन्दगी तो तू धड़कन मेरा है। उस खुदा की खुदाई की तू रोशनी है। तू मंज़िल मेरी, तू किनारा मेरा है। Kumar Vishwas awesome lines: Koi deewana kahta hai

यादें

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Picture courtesy of  wolfgangfoto यादें जिंदा तस्वीर है। अतीत के पन्नों पर खिंची शरारत की लकीर है।  यादें जिंदा तस्वीर है। जब यादों की धुन चुपके से कानों में आती है, भूले बिसरे गीतों के सरगम सी सुना जाती है। हर डर धुंधला सा हो जाता है, जब जीवन का समां यादों में जगमगाता है। अनगिनत लम्हों को बांधे इक प्यारी सी ज़ंजीर है, यादें जिंदा तस्वीर है।

जिन्दगी- इक बेतहाशा दौड़

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Picture courtesy of  Mina Guli न जाने सब को क्या पाने की होर है। हाँफती जिन्दगी में क्यों ये बेतहाशा दौ ड़ हैं। धुंधली मंजिल पर क्यों नजरबंद है निगाहें। क्यो डगमगाई ये जिन्दगी की डोर है। आशा की ताक में मिलती क्यों निराशा है। जिन्दगी बनी क्यो मौत की परिभाषा है। खुशीयों के दामन में बेचैन क्यों उदासी है। खुद बहते नीर के होंठों पर क्यों प्यासी है। रौनक और गुलजार जो था, आज यू गमगीन क्यो है। बिखरी इस खामोशी में सिसकियों का शोर क्यों है। जब कभी सवाल न थे तब जवाब लाखों थे, अब जब कुछ मैं पूछ रहा, हर जुबाँ खामोश क्यों है।

ज़िन्दगी- इक सफ़र

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Photo courtesy of  A_Peach           मुसाफ़िर हूँ, ये जग छोड़ चला हूँ मैं।      इक मुकाम से निकल दूजे की ओर चला हूँ मैं। किसी मंजिल की है मुझे परवाह नहीं, कुछ मेरा भी हो जा ऐसा कोई ख़्वाब नहीं। अनगिनत यादों से मुंह मोड़ चला हूँ मैं। मुसाफ़िर हूँ ये जग छोड़ चला हूँ मैं। जब गोद में था बादलों के तो इतराता था, अपनी विशालता पर मन ही मन इठलाता था। पर जब बूंद बना तो ये अहसास आया, कल तक जो दुनिया थी मेरी, उसको छोड़ चला हूँ मैं। अपनी दुनिया से परे इक नए डगर की और चला हूँ मैं। मुसाफ़िर हूँ, ये जग छोर चला हूँ मैं। कुछ दूर चला तो रेतो की प्यास नज़र आई, लाखों ज़िन्दगी की ओझल होती आस नज़र आई। अहसास तब आया की कुछ वजूद तो मेरा भी है इस ज़माने में, शायद अच्छा ही था यूं बारिश बन बरस जाने में।  अब जा कर ख़ुद को तराशने की ओर चला हूँ मैं। मुसाफ़िर हूँ ये जग छोड़ चला हूँ मैं।

आज फिर घनघोर घटा घिर आई है।

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Picture courtesy of  bc104 आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। उदास अम्बर पर अनजान ख़ुशी सी छाई है। बेहिसाब बादल जो उमरे मन के मौसम में, आई दस्तक सावन की मन के उपवन में। ख़ामोश ज़िन्दगी में ये किसकी आहट आई है, आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। कल तक जो झुलसी थी उपवन की कलिया, बिछड़े थे ख्वाबों से रंगीन रंगरलियाँ। गूंगे हर फ़साने पर खामोशी का पहरा था। उबलती ज़िन्दगी का घाव कुछ गहरा था। फिर अंतरमन में ये किसकी किलोल छाई है, आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। कल तक जो बैठा था, मैं यूं ही गुपचुप सा। तपता सा, जलता सा, मुरझा सा, सहमा सा। खोये हर फ़साने थे, डूबे हर तराने थे, फिर सुलगते इस धूप पर किसकी परछाई सी छाई है। आज फिर घनघोर घटा घिर आई है।

आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।

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Picture courtesy of  josefgrunig अपनी बंदिशों को झकझोर चला हूँ मैं, आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं। इक दौर था जब अँधेरों का घना साया था, डरा सहमा मैं मन ही मन घबराया था, दबें थे हर इक अल्फाज मन के किसी कोने में, उन अँधेरों से मुंह मोड़ चला हूँ मैं, आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।       सोचा था की कभी तो वो मुकाम मुमकिन होगा,       हर कश्ती को उसका साहिल तो हासिल होगा।       पर आज जो नज़ारे यूं बदले है,       हर इनसान के ख़ुद पर जो पहरे हैं,       इनसानियत के बीच जो पनपी खाई है,       अब हर उम्मीद से मुंह  मोड़  चला हूँ मैं।       हर बंदिशों से नाता छोड़ चला हूँ मैं।       आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।