आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।




Picture courtesy of josefgrunig














अपनी बंदिशों को झकझोर चला हूँ मैं,
आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।
इक दौर था जब अँधेरों का घना साया था,
डरा सहमा मैं मन ही मन घबराया था,
दबें थे हर इक अल्फाज मन के किसी कोने में,
उन अँधेरों से मुंह मोड़ चला हूँ मैं,
आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।
      सोचा था की कभी तो वो मुकाम मुमकिन होगा,
      हर कश्ती को उसका साहिल तो हासिल होगा।
      पर आज जो नज़ारे यूं बदले है,
      हर इनसान के ख़ुद पर जो पहरे हैं,
      इनसानियत के बीच जो पनपी खाई है,
      अब हर उम्मीद से मुंह मोड़ चला हूँ मैं।
      हर बंदिशों से नाता छोड़ चला हूँ मैं।
      आज आज़ादी की ओर चला हूँ मैं।

                                 







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