ज़िन्दगी- इक सफ़र

Photo courtesy of A_Peach
   

      मुसाफ़िर हूँ, ये जग छोड़ चला हूँ मैं।     
इक मुकाम से निकल दूजे की ओर चला हूँ मैं।
किसी मंजिल की है मुझे परवाह नहीं,
कुछ मेरा भी हो जा ऐसा कोई ख़्वाब नहीं।
अनगिनत यादों से मुंह मोड़ चला हूँ मैं।
मुसाफ़िर हूँ ये जग छोड़ चला हूँ मैं।
जब गोद में था बादलों के तो इतराता था,
अपनी विशालता पर मन ही मन इठलाता था।
पर जब बूंद बना तो ये अहसास आया,
कल तक जो दुनिया थी मेरी, उसको छोड़ चला हूँ मैं।
अपनी दुनिया से परे इक नए डगर की और चला हूँ मैं।
मुसाफ़िर हूँ, ये जग छोर चला हूँ मैं।
कुछ दूर चला तो रेतो की प्यास नज़र आई,
लाखों ज़िन्दगी की ओझल होती आस नज़र आई।
अहसास तब आया की कुछ वजूद तो मेरा भी है इस ज़माने में,
शायद अच्छा ही था यूं बारिश बन बरस जाने में। 
अब जा कर ख़ुद को तराशने की ओर चला हूँ मैं।

मुसाफ़िर हूँ ये जग छोड़ चला हूँ मैं।

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