आज फिर घनघोर घटा घिर आई है।
Picture courtesy of bc104 आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। उदास अम्बर पर अनजान ख़ुशी सी छाई है। बेहिसाब बादल जो उमरे मन के मौसम में, आई दस्तक सावन की मन के उपवन में। ख़ामोश ज़िन्दगी में ये किसकी आहट आई है, आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। कल तक जो झुलसी थी उपवन की कलिया, बिछड़े थे ख्वाबों से रंगीन रंगरलियाँ। गूंगे हर फ़साने पर खामोशी का पहरा था। उबलती ज़िन्दगी का घाव कुछ गहरा था। फिर अंतरमन में ये किसकी किलोल छाई है, आज फिर घनघोर घटा घिर आई है। कल तक जो बैठा था, मैं यूं ही गुपचुप सा। तपता सा, जलता सा, मुरझा सा, सहमा सा। खोये हर फ़साने थे, डूबे हर तराने थे, फिर सुलगते इस धूप पर किसकी परछाई सी छाई है। आज फिर घनघोर घटा घिर आई है।
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