जिन्दगी- इक बेतहाशा दौड़


Picture courtesy of Mina Guli
न जाने सब को क्या पाने की होर है।
हाँफती जिन्दगी में क्यों ये बेतहाशा दौ हैं।
धुंधली मंजिल पर क्यों नजरबंद है निगाहें।
क्यो डगमगाई ये जिन्दगी की डोर है।
आशा की ताक में मिलती क्यों निराशा है।
जिन्दगी बनी क्यो मौत की परिभाषा है।
खुशीयों के दामन में बेचैन क्यों उदासी है।
खुद बहते नीर के होंठों पर क्यों प्यासी है।
रौनक और गुलजार जो था, आज यू गमगीन क्यो है।
बिखरी इस खामोशी में सिसकियों का शोर क्यों है।
जब कभी सवाल न थे तब जवाब लाखों थे,


अब जब कुछ मैं पूछ रहा, हर जुबाँ खामोश क्यों है।

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